बिहार : बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बीते शनिवार को राज्य में पांच फीसदी की हिस्सेदारी रखने वाली पासवान यानी दुसाध जाति को महादलित का दर्जा देने का ऐलान किया
उनके इस ऐलान के साथ ही बिहार के साथ एक दिलचस्प तथ्य जुड़ गया है. राज्य में अब कोई भी जाति दलित नहीं रह गई है. बिहार की सभी 22 दलित जातियां महादलित बन गई हैं.
हालांकि नीतीश कुमार के इस कदम को आलोचक राजनीतिक लाभ के लिए उठाया गया कदम करार दे रहे हैं. उनके अनुसार पिछले तीन साल में पासवान जाति की सामाजिक-आर्थिक दशा खराब होने के कहीं से कोई संकेत नहीं मिले हैं जिससे कि महादलित का रद्द किया गया उसका दावा फिर से बहाल किया जा सके.
इससे पहले नीतीश कुमार ने ही मार्च 2015 में पासवान जाति को महादलित का दर्जा देने वाला जीतन राम मांझी का आदेश पलट दिया था. उस समय उनका तर्क था कि दलितों में 31 फीसदी का हिस्सा रखने वाली इस जाति की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थिति बाकी दलितों से बेहतर है. उन्होंने तब यह भी बताया था कि महादलित का दर्जा उसी दलित बिरादरी को दिया गया है जिनकी दशा दूसरों से खराब है. असल में नीतीश कुमार के इस्तीफे के बाद मुख्यमंत्री बने जीतन राम मांझी ने उनसे बगावत के बाद फरवरी 2015 में महादलित वर्ग से बाहर रह गई एकमात्र दलित जाति पासवान को इसमें शामिल करने की घोषणा की थी.
इसलिए बिहार के नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने इस फैसले को लेकर बिहार के मुख्यमंत्री की नीयत पर सवाल उठाया है. उन्होंने आरोप लगाया है कि नीतीश कुमार कभी नहीं चाहते कि रामविलास पासवान या कोई और उनसे ज्यादा मजबूत हों इसलिए यह फैसला उन्होंने केवल अपनी भलाई के लिए लिया है. तेजस्वी यादव ने कहा, ‘जब मैं उपमुख्यमंत्री था तो चंपारण के एक कार्यक्रम में शामिल होने नीतीश जी के साथ गया था. इस दौरान हेलीकॉप्टर में दलित-महादलित का मुद्दा छिड़ने पर नीतीश जी ने मुझसे कहा कि पासवान जी दलित नेता बनने की कोशिश कर रहे थे और तब उन्हें केवल उनकी जाति तक सीमित रखने के लिए उन्होंने महादलित वर्ग का गठन किया था.’ तेजस्वी यादव ने इसलिए नीतीश कुमार से पूछा है कि आखिर क्यों उन्होंने पासवान जाति को अब तक महादलित वर्ग से बाहर रखा और अब उसे इसमें शामिल कर लिया है.
वहीं राजनीतिक विश्लेषक नीतीश कुमार के ताजा फैसले को केंद्र में सत्तारूढ़ एनडीए गठबंधन के भीतर चल रहे राजनीतिक दांव-पेंच का परिणाम मान रहे हैं. इनके अनुसार एनडीए में शामिल बिहार के तीनों घटक आपसी सहयोग बढ़ाकर भाजपा पर दबाव बनाना चाहते हैं ताकि अगले लोकसभा चुनाव में अधिक से अधिक सीटों पर दावेदारी ठोकी जा सके. आलोचक नीतीश कुमार के इस फैसले को इसी मकसद से उठाया गया कदम मान रहे हैं जिससे कि लोक जनशक्ति पार्टी के मुखिया रामविलास पासवान से उनके संबंध और मजबूत हो सके. जानकारों का दावा है कि पिछले कई सालों से दोनों नेताओं के संबंध अच्छे नहीं रहे हैं लेकिन भाजपा के बढ़ते हुए प्रभाव पर अंकुश लगाने के लिए दोनों नेता पिछले कुछ हफ्तों में कई बार मिल चुके हैं.
नीतीश कुमार इसके अलावा कोइरी जाति के नेता और केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा के साथ भी नजदीकियां बढ़ाने में जुटे हैं. इसके तहत वे हाल में कई बार उनके साथ मंच साझा कर चुके हैं. बिहार के मुख्यमंत्री को कुछ समय पहले तक कुर्मी और कोइरी दोनों जातियों का नेता माना जाता था, लेकिन कुशवाहा के उभार के बाद ऐसा नहीं रह गया है. हालांकि जानकारों के अनुसार यदि दोनों नेताओं के संबंध सुधरते हैं तो इसका फायदा दोनों को मिलेगा.
इस बीच इन दलों ने हाल में दावा किया है कि उनके पास राज्य के कम से कम 38 फीसदी वोटर हैं. राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार एनडीए में शामिल इन तीनों दलों की नजर गैर-यादव ओबीसी, अति पिछड़ी और दलित जातियों पर है. इसलिए माना जा रहा है कि नीतीश कुमार अगले कुछ महीनों में इन जातियों को गोलबंद करने वाले ऐसे ही कई दूसरे फैसले भी ले सकते हैं. यही नहीं, इस बात की पूरी संभावना है कि ये तीनों नेता आने वाले वक्त में एक-दूसरे के और करीब दिखने की पूरी कोशिश करें. आखिर भाजपा के साथ रहते हुए भी अपना-अपना अस्तित्व बचाना इन तीनों के लिए आसान चुनौती नहीं है.
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